لِمَ ؟!
نذرت نفسك..
قرباناً
لما إلهٍ!
وسجدت..
خاشعةً
لأصنامك الفخّاريّة!
* * *
لِمَ ؟!
اخترت..
أن ترفعي أشرعتك..
عالياً
حينما رأيت عاصفتي..
آتية!
* * *
لِمَ ؟!
طليت قلبك..
بالسّواد؟
...كي يخيفني!
وقطعت...أوصاله؟
...كي لا يحضنني!
ونكأت مقلتيه؟
...كي لا يعرفني!!!!
* * *
لِمَ ؟!
ارتفعت بهامتك..
عالياً
أقصى...
من مئذنةٍ
في عش نسور
فوق السموات...
جميعها
...كي أبدو ضئيلاً!!!
أو لا أبدو..
أنسيتِ..
أنّك في قلبي
تغتسلين..
في طهر نجيعه
وتلبسين....
أوردته
سرابيل..وحِلى
وعندما يدهمك ...السهد
في بلاطٍ...له
بحضرة الكبرياء
تتوسدين....
أناته
وتلتحفين...
الوفاء.
فادي
16/3/2005